Monday, September 9, 2013

   दंगों के सौदागर

दुनिया के सभी देश दंगों की बिमारी से ग्रसित है।

कहीं गोरों और कालों के बीच लड़ाई -दंगे होते हैं तो कहीं इसाई और मुसलामानों के बीच।

हमारे देश में अधिकतर दंगे हिन्दू और मुसलामानों के बीच होने के साथ-साथ कहीं कहीं इसाई समुदाय के साथ भी हो रहे हैं।

दुनिया  भर में सबसे अधिक दंगे मेरे मुस्लिम भाइयों के दो समुदायों के बीचआपस में होते आये हैं।

वैसे तो मुस्लिम समाज कई समुदायों में बंटा  हुआ है ,किन्तु दो समुदाय मुक्ष हैं और विश्व -व्यापी हैं ,
 सुन्नी और शिया।

जहां मुसलमान हैं वहाँ सुन्नी भी हैं तो शिया भी हैं।

यह दोनों समुदाय और इसके लोग आपस में कभी भी अमन -चैन से नहीं रहते।  इतिहास गवाह है  कि दुनिया भर के मज़हबी दंगों में सब से बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों समुदायों के आपसी दंगों का होता है।

इस धरती पर समय-समय पर पैगम्बरों और अवतारों ने जन्म लिया।

जितने भी अवतार हुए या पैगम्बर हुए सबने अपने-अपने समय में इंसानियत को बढ़ावा देने के लिए प्यार और शान्ति का सन्देश दिया।

अवतारों और पैगम्बरों के पीछे नए-नए धर्म बने।

हर धर्म के सिद्धांत  कमोबेश एक से हैं और मनुष्य मात्र को हैवानियत छोड़कर इंसानियत अपनाने को कहते हैं।

लेकिन जैसे इंसान में जमीन जायदाद के लिए लालच होता है वैसे ही धर्म के ठेकेदारों में अपने चेलों की तादाद बढाने  का लालच होता है।

जहां हर धर्म घमंड छोड़ कर भाई चारा बढाने की शिक्षा देता है ,  मानव मात्र के प्रति  प्रेम और समभाव  की शिक्षा देता है वहीं उसी धर्म के ठेकेदार अपने -अपने धर्म के मूल सिद्धांतों को दर-किनार करके सिर्फ और सिर्फ अपने ही  धर्म को अपनी ही पूजा पद्धति को ज्यादा बड़ा , ज़्यादा महान बताते हुए दुसरे धर्मों को और दुसरे धर्मावलम्बियों को निम्न कोटि का बताते हैं।

इस प्रकार ( सही मायनों में ) ये धर्म के ठेकेदार खुद अपने ही धर्म के सिद्धांतों को भुला कर प्यार और भाई-चारा छोड़ कर नफरत की फसल बोते और काटते रहते हैं

युगों - युगों से मनुष्य नफरत की आग में जल रहा है।  

जब-जब नफरत बढती है कोई ना कोई युग पुरुष प्रकट होता है और दुनिया को प्यार और मोहब्बत पर चलाने की कोशिश करता है।

लेकिन अफ़सोस उसके महाप्रयाण के बाद उसके चेले उसके ही  नाम की जय-जय कार करते हुए उस की महानता के गीत गाते हुए दुसरे सम्प्रदाय के लोगों का गला काटने लगते हैं , क्योंकि उन्हें अपने पैगम्बर के सिवाय किसी दुसरे पैगम्बर के अनुयायियों की मौजूदगी सहन नहीं होती।

ये सिलसिला थमता नज़र नहीं आता।

इसीलिए और इसी नफरत की ताकत के बल पर आज के राजनीतिज्ञ वोट-बेंक की राजनीति अपना रहे हैं।

देश -समाज या इंसानियत से किसी को कोई मतलब नहीं।

सिर्फ और सिर्फ यही वजह है कि कोई विशवास नहीं कर पा रहा कि मोदी जी सद्भाव और समभाव की निति चला पायेंगे। 

किन्तु समय की पुकार है की हमें इस महान व्यक्ति को भी एक मौका तो देना ही चाहिए

Sunday, July 8, 2012

शाकुम्भरी देवी की यात्रा

शाकुम्भरी देवी की यात्रा 
पिछले  सोमवार यानी 2 जौलाई को मैं माता शाकुम्भरी देवी की यात्रा के लिए घर से सुबह 9 बजे निकला था .
बहुत  दिनों से भगवती के दर्शनों की तीव्र इच्छा थी .
2 जौलाई को यह इच्छा माँ जगदम्बा की कृपा से पूर्ण हुई .
माँ शाकुम्भरी के स्थान एवम उसके दरबार का सीधे सीधे वर्णन करने के बजाय मैं पहले भगवती के मन्दिर तक पहुँचने के मार्ग का वर्णन करना भी ज़रूरी समझता हूँ .
तो आइए मेरे साथ यात्रा शुरू कीजिए .
मैं क्योंकि गुडगाँव में रहता हूँ ,तो मुझे गुडगाँव से दिल्ली पार करके गाजिआबाद  होते हुए मेरठ और फिर मुज़फ्फरनगर से देवबन्द होते हुए सहारनपुर का रास्ता पकड़ना था .
मुज़फ्फरनगर से शाकुम्भरी देवी जाने का रास्ता पहले देवबंद और उससे आगे सहारनपुर से होकर जाता है
सहारनपुर से मन्दिर तक की दूरी 42 कि . मी . है
इस 42 कि .मी . में 26 कि .मी.बेहट तक का रास्ता बेहद खराब ऊबड़ --खाबड़ और पथरीला है .इस से पहले देवबन्द  से लेकर सहारनपुर तक  का रास्ता भी बहुत ही खराब है .
मुज़फ्फर नगर के बाद हाई--वे छोड़ कर सहारनपुर के लिए अलग मार्ग पकड़ना पड़ता है जो आगे देवबंद तक बहुत  अच्छा एवं मनोरम है .
देवबन्द , जिसका पुराना और असली नाम  '' देवीवन '' है , आज मुस्लिम धर्म का भारत देश में एक मुख्य केन्द्र  है .
देविवन या देवबन्द एक कस्बा ही है ,जो किसी भी लिहाज से उन्नत नहीं नज़र आता .
यहाँ के मशहूर मुस्लिम धर्म गुरुओं ने अपने शहर और शहर के निवासियों का जन--जीवन सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जान पड़ता.
वैसे उन्होंने बाकायदा किलेबन्दी किया हुआ मशहूर मदरसा और धर्म के फतवे जारी करने का गढ़ ज़रूर बना रखा है .
इसे  इस्लाम जैसे उन्नत और खुदापरस्त धर्म की राह में रोड़ा तो कहा जा सकता है उन्नति का केंद्र नहीं , जो कुछ दशक पहले यह होता था .खैर छोडिये और अपनी राह लगिए .इन्हें अल्लाह के भरोसे छोडिये .


देवबन्द में एक विशाल एवं मनोरम तालाब के किनारे देवी का प्रसिद्ध और अति - प्राचीन मंदिर है .इस मंदिर में वैष्णव -देवी के मंदिर की तरह एक छोटी सी शिला रूप में देवी का विग्रह है . यहाँ विराजमान देवी को शाकुम्भरी देवी की छोटी बहन माना जाता है .
मन्दिर एवं उसके चारों ओर का परिसर ,जिसमें 11 मुखी शिव भी विराजमान हैं अत्यन्त प्रभावशाली एवम श्रद्धा  उत्पन्न करने वाला है .
देवबंद में देवी के दर्शन करके हम लोग आगे सहारनपुर की  ओर बढे .
देवबन्द से सहारनपुर की ओर जाने वाली सड़क पर गर्भवती महिलाओं  को भूलकर भी यात्रा नहीं करनी चाहिए .ये दुस्साहस उनके लिए जानलेवा साबित हो सकता है .
सहारनपुर से शाकुम्भरी देवी जाने के लिए  '' बेहट '' नाम  के कसबे से होकर जाते हैं .
सहारनपुर से बेहट  तक का 26 कि .मी .लम्बा सड़क मार्ग भी बेहद ऊबड़--खाबड़ है .पूरे रास्ते गाडी का सस्पैन्शन या ऐक्सिल टूटने का डर  बना रहता है .इतनी  खराब सड़क होने के बावजूद भी वहाँ के लोकल लोग सड़क पर 20 से 25 की स्पीड पर अपनी गाड़ी  भगाते दिख जाते हैं , शायद उन लोगों को इस टूटी हुई सड़क की आदत पड़  चुकी है .
वहाँ सड़कों की दुर्दशा देख कर जिम्मेदार अधिकारियों की ढिठाई पर आशचर्य होता है .बरसों से खराब इन सड़कों को ठीक रखने के नाम पर सरे--आम हो रही लूट साफ़--साफ़ नज़र आती है .
माता भगवती के दर्शनों की चाह सड़क की दुर्दशा को नज़र--अन्दाज़ करते हुए यात्री को आगे बढ़ते जाने को प्रेरित करती रहती है .
बेहट से शाकुम्भरी देवी की ओर जाने वाली सड़क पर एक प्रवेशद्वार भी बनाया गया है एवम यह 16 कि .मी लम्बा सड़क मार्ग बहुत बढिया और मनोरम भी है .इस 16 कि मी लम्बी सड़क पर यात्रा करते हुए यात्री पिछली सड़कों की दुर्दशा भूल जाता है .
बेहट से 16 कि मी की सुखद यात्रा के बाद यात्री अपने को नदी के एक कछार के किनारे पर पाता है , जो महीन,छोटे--छोटे और बड़े पत्थरों से  भरा है .
आजकल वर्षा ऋतु  का समय है तो उस दिन भी इस कछार में 8 से 10 फुट तक चौड़ी और 3 से 4 इंच तक गहरी 3 जल - धाराएं बह रही थीं .बाद में मालूम हुआ कि यह कछार किसी नदी का अंग नहीं है बल्कि यह पहाड़ों में होने वाली वर्षा के पानी से बना है .
सब मिलाकर बड़ा सुन्दर दृश्य नज़र आता है .
इन जलधाराओं में से होकर ही सब यात्री और वाहन आगे मंदिर की ओर बढ़ रहे थे .पहले से भी काफी वाहन मन्दिर के सामने कछार में ही खड़े थे .
मैंने भी अपनी कार एक ट्रैक्टर -ट्रोली के पीछे--पीछे कछार में उतारी और जलधाराओं को पार करते हुए सामने के किनारे के पास ले जाकर खड़ी  कर दी .
कार पार्क करके हम लोग मंदिर की ओर बढे .
मन्दिर में माता के दर्शन करके जब हम लोग बाहर निकले तब मन्दिर के सामने एक ट्रक और एक कार को कीचड--गारे में फंसा हुआ देखा .देख कर बड़ी हैरानी हुई ,पूछने पर मालूम हुआ ,
जब भी ऊपर देहरादून आदि पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षा होती है तो वर्षा का  जल बड़े वेग से जल की बहुत बड़ी धारा के रूप में  इधर से होकर निकलता है
वर्षा का यह जल अपने साथ टनों मिट्टी  और हर साइज़ / आकार के पत्थर भी लाता है .
1 तारीख की शाम को ऊपर से वर्षा के जल के साथ बह कर आए मिट्टी - गारे और पत्थरों की बाढ़ में  अभी भी यह दोनों ट्रक और कार फंसे हुए थे .
ट्रक अपने पिछले दायें पहिये पर ज़मीन से 80 डिग्री का कोण बनाए बड़ी असंभव सी स्तिथि में गारे में धंसा हुआ खडा था .उसे गारे से निकालने के लिए सहारनपुर से क्रेन बुलवाई गई थी और उसके पिछले भाग में भरे मिट्टी -गारे और पत्थरों को निकालने के लिए लोग बड़ी मेहनत  कर रहे थे .
कार का तो और भी बुरा हाल  था ,कार बेकार हुई पड़ी थी .वर्षा के पानी की तेज़ रफ़्तार और पत्थरों की मार से कार के शीशे टूट गए थे और पूरी कार कीचड -गारे से भर गई थी .
यह सब प्रक्रिति की लीला ही है .
एक ओर प्रकृति का यह ताण्डव  नृत्य और दूसरी ओर उसका मनोरम रूप .
  इस मनोरम कछार के एक ओर ऊँचाई पर माता शाकुम्भरी देवी का मंदिर है ,जिसके बाहर टेंटों का टेम्परेरी बाज़ार भी लगता है .
इस बाज़ार में यात्रियों की सुविधा के लिए हर प्रकार का सामान उपलब्ध होता है .
मंदिर और बाज़ार के सामने कछार के दुसरे किनारे पर चार-पांच  धर्मशाला और एक आश्रम स्थित हैं..धर्मशाला यात्रियों के विश्राम के लिए हैं .आजकल के हिसाब से धर्मशाला बस ठीकठाक ही हैं .
आश्रम , श्री स्वरूपानंद जी ,शंकराचार्य जी द्वारा बनवाया गया है और उन्हीं की देखरेख में संचालित है .सन्त   गण 12 महीने इस आश्रम में रहते हैं और भगवती की आराधना में लीन  रहते हैं .आश्रम में संस्कृत का एक विद्यालय भी है ,जहां 70-75 विद्यार्थी निशुल्क अध्ययन करते हैं .विद्यार्थियों के रहने खाने का प्रबंध आश्रम की ओर से मुफ्त किया जाता है .विद्यालय में पढ़ाने वाले आचार्य गण विद्वान् व त्यागमूर्ति हैं .

माँ शाकुम्भरी दर्शन

मंदिर के प्रवेशद्वार के साथ ही पूजा सामिग्री बेचनेवाला बैठा है .
10-12 सीढियां चढ़कर भक्त मंदिर के प्रांगण में पहुँचते हैं .चैत्र  एवम अश्विन के नवरात्र में यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है और तब भक्त बहुत बड़ी संख्या में यहाँ इकट्ठा होते हैं .तब माता के दर्शनों के लिए बहुत लम्बी लाइने
लगती हैं और घन्टों  की प्रतीक्षा के बाद माता के दर्शन हो पाते हैं .वैसे चौदस को भी काफी भीड़ रहती है .
हम जब गए तब कोई अधिक भीड़ नहीं थी .15-20 मिनट लाइन में खड़े होने के बाद माता के दिव्य स्वरुप के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ .मंदिर के प्रवेशद्वार पर एक खुलने और बंद किये जाने वाला जंगला लगा है .मंदिर के प्रवेशद्वार पर ही एक विशाल मेज़ पर 2-3 पुजारी बैठे रहते हैं ,और भक्तों से चढ़ावा आदि लेते रहते हैं और उन्हें प्रसाद देते रहते हैं .
भक्त बाहर से ही माता के दिव्य विग्रह के दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं .

सामने माता की 4मोहनी मूरत गणेष जी की एक छोटी सी मूर्ती के साथ विराजमान हैं .
सामने चबूतरे पर पूर्वाभिमुख माता शाकुम्भरी देवी  अपने 3 स्वरूपों , शाकुम्भरी , शताक्षी  और  भ्रामरी के रूप में गणेश जी के साथ विराजमान हैं  तो उनके बाईं ओर उत्तराभिमुख होकर माता अपने भीमा देवी स्वरुप में विराजमान हैं .
शाकुम्भरी देवी के इन चारों स्वरूपों का वर्णन '' दुर्गा सप्तशती '' में आता है .

दर्शन करके प्रशाद ग्रहण करने के बाद देखा कि मन्दिर की परिक्रमा में पीछे की ओर और भी मंदिर बने हैं .
मन्दिर के सामने , उसके दाएँ ओर एक हवन  कुण्ड  भी बना है , जहां भक्त अनुष्ठान आदि करके हवन कर सकते हैं .
ढोल वाले वहां ढोल बजाते हुए भक्तों की मंगल कामनाओं की पूर्ती की आस लगाए भक्तों से बख्शीश मांगते नज़र आते है .

भगवती के दर्शन करके बहुत आनन्द  आया और मुंह से बरबस ही निकल गया ,

 '' शेरां वाली माता तेरी सदा ही जय ''                                                                                                              ' ' बोल साचे दरबार की जय ''

माँ भगवती से प्रार्थना करता हूँ कि  आप सब को बहुत जल्द दर्शन देकर आपका जीवन धन्य --धन्य करे .



Thursday, March 1, 2012

कमला-1

कमला-1 
बहुत पुरानी बात बताने जा रहा हूँ .
यही कोई 1957-58  की घटना है .करीब 54-55 साल पहले की .
अब सवाल यह उठता है कि इतने बरसों बाद इतनी पुरानी बात क्यों ले कर बैठ गया हूँ .
तो हुआ कुछ यूं साहेबान कि पिछले हफ्ते एक दिन  शाम को हमारी गली के  हमारे कुछ अड़ोसी-पडोसी अपने-अपने काम से करीब-करीब एक साथ  लौट कर घर आये . अपनी-अपनी कार पार्क करके आपस में दुआ-सलाम करते हुए खन्ना जी के घर के सामने आन खड़े हुए . दुआ सलाम के बाद बातों का सिलसिला कुछ ऐसा खिंचा कि वहीं खन्ना जी के आँगन में सब लोग कुर्सियों पर जम गए .श्रीमती खन्ना ने शाम की चाय का दौर चला दिया .
बातों-बातों में ज़िक्र नारी की आज की परिस्थिति का छिड़ गया .
बहस का मूड भांपते हुए खन्ना जी ने अपने छोटे पुत्र को भेज कर मुझे भी बुलवा भेजा .
मैंने वहाँ पहुँच कर पाया कि वहाँ करीब आठ-नौ लोग इकट्ठा हो चुके थे और बहस इस मोड़ पर थी कि आजकल औरतों के अधिकारों को लेकर कुछ ज़्यादा ही प्रगतिशीलता का ढोंग हो रहा है .यहाँ तक कि आजकल मीडिया की शह पाकर औरतें भी अनाप-शनाप  हरकतों पर उतर आई हैं .
मेरी जान-पहचान के सभी लोग यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं नारी के अधिकारों और उसकी अस्मिता की रक्षा का बहुत बड़ा पक्षधर हूँ , और इसी लिए बहस का मूड भांपते हुए खन्ना जी ने मुझे बुलवा भेजा था . 
वहाँ मौजूद लोगों में एक-आध को छोड़कर बाकी सब औरतों से खार खाए नज़र आ रहे थे .
बहस का विषय बहुत पुराना और घिसापिटा यानी दकियानूसी था , जिसका अन्त मैंने अधिकतर मनमुटाव से होता पाया है .
मेरा यह मानना है कि पिछली कई शताब्दियों से औरत को समाज में घुट-घुट कर पिसते हुए अपना जीवन नष्ट करना पडा है .अपवाद सदा से होते आये हैं ,आज भी हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे .
मैं असमंजस में था कि कैसे इस गरमा-गरम माहौल को प्रेम और ख़ुशी के वातावरण में समाप्त करूँ कि खन्ना जी ने मेरी समस्या का हल मुझे सुझा दिया .
खन्ना जी बोले ," भाई साहब , वो मुज्ज़फ्फर नगर वाली बात इन सब को भी सुनाइए जो आप ने पिछले महीने हमें सुनाई थी ".
मैंने सब से कहा कि जिस बात का खन्ना जी ज़िक्र कर रहे हैं वह बहुत पुरानी है , आज से कोई 54-55 साल पुरानी .उस समय ना तो कोई मीडिया नाम की चीज़ थी और ना ही औरतों के अधिकारों को लेकर संघर्ष करने वाली कोई संस्थाएं , लेकिन उस समय भी कोई -कोई स्त्री ऐसी जीवट वाली उभर कर सामने आती थी कि उसकी शौर्य-गाथा सारे समाज में प्रशंसा का विषय बन जाती थी .
यह एक युवति के संघर्ष की बहुत पुरानी किन्तु सच्ची कहानी है .
अब क्योंकि कहानी काफी लम्बी है , और इस समय आप सब का इंतज़ार आप लोगों के अपने-अपने घरों में हो रहा है तो मेरा सुझाव यह है कि  इस समय यह महफ़िल कल तक के लिए बर्खास्त कर दी जाए और कल क्योंकि छुट्टी का दिन है तो आप सब लोग भोजन करने के बाद किसी भी समय जो सब को उचित लगे मेरे घर आ जाएँ , मैं आप सब लोगों को बरसों  पहले की ,रूढ़िवादी माने  जाने वाले जाट परिवार में पैदा हुई , एक लड़की की कहानी सुनाऊंगा तो आप सभी लोग यह मान जाओगे की औरत के संघर्ष की कहानी आज किसी मीडिया के कारण नहीं बढ़-चढ़ रही बल्कि औरत पुरातन काल से अपनी लड़ाई खुद अपने दम पर लडती और जीतती आ रही है .
सब को मेरा प्रस्ताव जंचा और अगले रोज़ दोपहर दो बजे फिर से मेरे घर पर इकट्ठा होने पर एकमत होकर उस समय की सभा आनन्द पूर्वक विसर्जित हो गई . मैंने भी चैन की सांस ली .
घर पहुँचने पर सारा सिलसिला श्रीमति जी को भी बताया तो वो हंसने लगीं और बोलीं , " तो आप कमला की शादी और उसको लेकर हुए हडकंप की कहानी सुनाना चाहते हो , बहुत बढ़िया बात चुनि है आपने  सब लोगों को समझाने ले लिए , लेकिन उस समय की तरह आज भी काफी लोग सारी बात जानने के बाद  दुविधा में ही रह जायेंगे ".
"क्यों आज क्या लोग घर-जमाई नहीं रहते ?" मैंने कहा .
" रहते हैं , और उन दिनों भी रहते थे किन्तु उस समय के दकियानूसी दौर में जाटों जैसे रूढ़िवादी परिवारों में घर-जमाई बनाने की शर्त एक लड़की द्वारा रखना और वो भी कई तरह की दूसरी शर्तों के साथ , कोई छोटी-मोटी बात नहीं थी ".
'' इसीलिए तो सुनाने लायक कहानी है ''.मैंने कहा और भोजन करने बैठ गया . 





Monday, December 12, 2011

पराये धन का भार


  पराये धन का भार 



         शनिवार  सुबह गली से किसी के भजन गाने की आवाज़ सुनाई दी . घर से बाहर निकल कर देखा तो गली में तीन व्यक्ति देवी के भजन गाते हुए  नज़र आये .बड़ी मधुर आवाज़ में तीनों चलते-चलते माता का भजन गा रहे थे . तीनों नेत्र-हीन भी थे .इतने में मेरा बेटा भी उनकी आवाज़ से आकर्षित होकर बाहर आ गया .मेरा बेटा और मेरी तरह गली के और भी बहुत से लोग अपने-अपने घरों से बाहर आ गए थे .

    तीनों नेत्र-हीनों ने पीले रंग के वस्त्र  पहने हुए थे . मेरे बेटे ने एवं गली के कुछ और लोगों ने भी उन्हें कुछ रुपये देने चाहे ,किन्तु उन लोगों ने किसी से भी कुछ भी स्वीकार नहीं किया .

सब को बहुत हैरानी हुई कि सुबह-सुबह गली में गाते हुए घूम भी रहे हैं और किसी से कुछ ले भी नहीं रहे .
क्यों  ?

हैरान मैं भी था , अतः मैंने उन्हें अपने पास बुलाया और उनसे पूछा , " आप लोग गली में भजन गाते हुए घूम रहे हैं , तो किसी के द्वारा दी जा रही भेंट स्वीकार क्यों नहीं कर रहे  ? यदि कोई ख़ास वजह न हो तो बताइए .

तीनों में से एक वृद्ध ,एक २४-२५ वर्ष की आयु का नवयुवक एवं तीसरा ४० वर्ष के आस-पास का व्यक्ति था .

मध्यम  आयु का व्यक्ति बोला , '' भगत जी  ,  फ़िज़ूल की बातें करने से तो अच्छा है कि हर वक़्त ज़ुबान पे माता का नाम रहे इसीलिए चलते हुए भी माता रानी के गीत गाते रहते हैं , अच्छा लगता है , हमें भी और सुनने वालों को भी .''

'' यह तो बहुत सुन्दर विचार है , सुनकर हम सब को भी बहुत अच्छा लगा इसीलिए हम सब लोग अपने-अपने घरों से निकल कर आपके पास आ खड़े हुए हैं , लेकिन जैसा कि अभी मैंने आप से पूछा ,क्या कारण है कि आप लोग किसी की  भी कोई भेंट स्वीकार नहीं कर रहे .'' मैंने जानना चाहा .

वोह महाशय थोड़ा मुस्कुराए और फिर बोले , '' भगत जी , हमारी बात का गलत मतलब मत निकालना और बुरा भी नहीं मानना .हम लोग अंधे जरूर हैं लेकिन भिखारी नहीं हैं , हम लोग लोगों की भीख से अपनी जेबें नहीं भरना चाहते .इसीलिए गली-गली माता का गुण-गान ज़रूर करते फिरते हैं पर घर-घर  से भीख नहीं मांगते .''

 " फिर भी कोई वज़ह तो होगी जो  आप लोग गलियों में घूम रहे हैं ? " मैंने फिर आग्रह किया .

" भगत जी ,इन गलिओं में हम लोग पिछले तीन दिनों से घूम रहे हैं . बहुत से लोगों ने दस-बीस रूपये की भीख भी देनी चाही लेकिन किसी ने भी  इतने सम्मान और आग्रह से  हमसे हमारे गलिओं में घूमने के कारण को नहीं जानना  चाहा , आप का प्रेम भाव देखकर बहुत ख़ुशी हुई है , और उम्मीद भी बन्धी है की हमारी आस शायद यहाँ अवश्य पूरी होगी ."

      " यही तो हम सब भी आपसे जानना चाह रहे हैं कि क्या आस लेकर आप लोग गलिओं में गाते हुए घूम रहे हैं ?" मैंने अपनी बात आगे बढाते हुए कहा .

" आस तो है ही , पर कहते भी संकोच महसूस होता है , न जाने सामने वाला हमारे बारे में क्या सोचे , हमारी आस पूरी भी कर पाए  या नहीं ,इसीलिए हर व्यक्ति को अपनी ज़रुरत के बारे में कह भी नहीं पाते , आप यदि हमारी ज़रुरत पूरी करें तो बात मुंह से निकालें ."

उनकी बात सुनकर मैं सकपका गया .

ना जाने कितनी बड़ी इनकी ज़रुरत हो ? बिना जाने कैसे वायदा कर दूँ  .

वैसे तो संसार में किसी का भी बिना जांचे परखे जल्दी से भरोसा कर लेना  कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं , किन्तु न जाने क्यों  इस सत्तर साल से ऊपर के अनुभव के बाद भी मेरा मन उन पर विशवास करना चाह रहा था .

      लेकिन फिर भी बिना जाने-बूझे पहले से ही कोई वायदा कैसे किया जा सकता था , अतः मैंने कहा , '' आप बोलिए तो सही , मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार आप की जो मदद हो सकेगी , अवश्य करूंगा  ''.


    वो महाशय हंसने लगे और फिर बोले , आप ठीक कहते हैं , बिना हमारे कहे कोई कैसे जानेगा कि हमारी ज़रुरत क्या है और वो हमारी कितनी सहायता कर सकता है .

     " बिलकुल ठीक , तो बताइये आप की समस्या क्या है  ? "

     " भगत जी , हम तीनों वैष्णव माता के दरबार जाना चाहते हैं . जम्मू तक रेल से और आगे कटरा तक बस से  जाने का हमारा कोई किराया-भाड़ा नहीं लगता लेकिन उससे आगे दरबार तक जाने के लिए हमें घोड़ों  पर जाना पड़ता है और घोड़े वाले एक घोड़े का ६००/ रुपया लेते हैं , हम तीनों के लिए तीन घोड़े चाहियेंगे , पूरी यात्रा में १० से १५ दिन लग ही जाते हैं , अतः वो भी खर्चा चाहिए होता है "

   "  तो फिर  जब आपको हम लोग पैसे देना चाह रहे हैं तो आप लेने से मना क्यों कर रहे हैं ? " हमारे पड़ोस में रहने वाली एक महिला बोल पडीं .


         " वो इसलिए बेटी जी , कि हम लोग घर-घर , घूम-घूम कर थोड़ा-थोड़ा करके पैसा इक्कट्ठा नहीं करना चाहते . किस-किस का और कितने लोगों के दान का भार अपने सर पर लादें  ? पहले से ही ना जाने किन कर्मों का फल , इस जन्म में अन्धे बन कर भुगत रहे हैं , सर पर इतने ज्यादा लोगों के पराये धन की  गठड़ी का भार नहीं लादना चाहते ."

     " पर बाबा , फिर भी आप लोग गली-गली घूम  रहे  हैं ?"  महिला बोली .

     " वो इसलिए बेटी , कि शायद कहीं कोई ऐसे दानी सज्जन मिल जाएँ जो हमें यात्रा करवा दें . अब देखो हम पिछले तीन दिनों से गली-गली गाते हुए घूम रहे हैं पर किसी ने भी इतने आग्रह से हमसे हमारी आस के बारे में नहीं जानना चाहा . किसी ने पूछा नहीं और  हमने बताया नहीं और आज यहाँ माता रानी ने आप लोगों से मिलवा दिया .आप लोग हमारी मदद कर पायेंगे  या नहीं वो अलग बात है पर जिस प्रेमभाव से आप लोगों ने हमसे बात की है उससे हम लोग बहुत खुश हैं . माता रानी आप सब का भला करे ".

    मैं घर में जाकर अन्दर से रूपये ले आया और आकर उन महाशय को दे दिए ( कितने दिए , वो बताना मैं उचित नहीं समझता ) . नेत्रहीन व्यक्ति नोट को हाथ से छूते हुए टटोल कर उसके मूल्य का अंदाजा भली प्रकार से लगा लेते हैं . उन्होंने भी नोटों को टटोला , गिना और बहुत खुश हो गए . इतने में पडोसी महिला ने भी एक पांच सौ का नोट उन्हें पकड़ा दिया . उन्होंने अपने साथियों को प्राप्त हुई कुल राशि के बारे में बताया  और तीनों मिलकर जोर-जोर से खूब आशीर्वाद की वर्षा करने लगे . माता रानी की कृपा से उनकी मुराद पूरी हो गयी थी और अब वो माता के दरबार में अपनी हाजरी लगा सकते थे .

हमारे पड़ोस में रहने वाला एक और जवान जोड़ा उन लोगों को अपने घर भोजन कराने ले गया .

     मेरे मन में  बार-बार एक ही बात कौंध रही है कि पिछले तीन दिनों से वोह लोग घूम रहे थे और लोग उन्हें थोड़ा-थोड़ा पैसा भी देने को तैयार थे , अगर वोह लोग दो-चार दिन और घूम लेते तो बड़े आराम से दस-बारह हज़ार रुपया बटोर सकते थे , पर उसकी जगह उन्होंने केवल अपनी ज़रुरत भर का पैसा लेना ही ठीक समझा और वो भी केवल एक या दो ही लोगों से . ( मैंने अपनी तस्सल्ली के लिए आस-पास उन लोगों के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की थी तो उन लोगों की बात सच मालूम हुई थी . उन्होंने और किसी से पैसा नहीं लिया था) .

    मेरे मन में जो बात बहुत ज्यादा खटक रही है वो ये कि एक तरफ तो वो तीन नेत्रहीन व्यक्तियों की भावना , कि  ज़्यादा लोगों से इकट्ठा किया हुआ दान का पराया धन भी भारी गठड़ी है जो आदमी के पतन का कारण बन सकता  है और दूसरी तरफ हमारे देश में ऊंचे-ऊंचे पदों पर बैठे लोग हैं जिनका नज़रिया उन नेत्रहीनों के नजरिये से एक दम उलट है .

   मैं सोच रहा हूँ कि हमारा देश अक्ल और कर्मों से अंधे लोगों के ज्यादा संक्षा में होते हुए भी
 आँख से अंधे उन नेत्रहीन  व्यक्तियों जैसे लोगों की भावनाओं के दम पर ही आज भी टिका हुआ है .

आप क्या सोचते हैं ?
  
 

 

  

  






Thursday, November 24, 2011

स भ्य-असभ्य


   स भ्य-असभ्य                                                                                                                                                                        कुछ दिन पहले  टाइम्स आफ इंडिया में एक दृष्टान्त पढ़ा था , बहुत अच्छा लगा , मन चाहा कि सब के साथ शेयर करूं सो लिख रहा हूँ , मुझे विश्वास है कि आप सब भी इसे बहुत पसंद करेंगे .

दृष्टान्त के लेखक महोदय दक्षिण भारतीय हैं और उन्होंने एक  काफी पुरानी घटना का वर्णन किया है .

किसी कार्यवश उन्हें  अपने शहर से ट्रेन द्वारा  कोलकाता जाना था . उनकी रिज़र्वेशन फर्स्ट क्लास के कूपे में ऊपर वाली बर्थ कि थी . जब उन्होंने कूपे में प्रवेश किया तो उन्होंने पाया  कि नीचे वाली बर्थ का यात्री पहले से ही अपनी बर्थ पर बैठा था . उसका अपनी बर्थ पर मौजूद होना कोई बड़ी बात नहीं थी , बड़ी बात थी उस आदमी का फर्स्ट क्लास कूपे की बर्थ पर ( जिसका कि वो पूरी यात्रा के दौरान इकलौता मालिक था ) दोनों पैर सिकोड़ कर एक कोने में गड्ड-मड्ड हो कर उकडू बैठे होना .

खैर ,  उन्होंने बहुत गरम-जोशी दिखाते हुए और अपना सहयात्री होने का धर्म निभाते हुए इन महाशय को नमस्कार किया और कहा ," जनाब , मैं हावड़ा तक जाऊंगा . आप कहाँ तक चलेंगे ? ".

नमस्कार या उनकी बात का जवाब देना तो दूर इन महाशय ने उनकी तरफ नज़र उठा कर देखना भी गवारा नहीं किया .

तभी कंडक्टर ने कूपे में प्रवेश किया . दोनों की टिकेट्स चेक कीं और गुड-नाईट बोल कर चला गया .

लेखक महोदय ने जब सहयात्री का बेरुखा रुख देखा तो आगे और कोई बात ना करते हुए चुप-चाप अपनी ऊपर वाली बर्थ पर चादर बिछा कर जा लेटे , और नाईट लैम्प  जलाकर किताब पढने लगे .

गाडी  धीरे-धीरे चलती हुई तेज़ रफ़्तार से दौड़ने लगी . कुछ देर बाद लेखक महोदय को लगा कि भोजन कर के सोने का प्रोग्राम बना लेना चाहिए .

उनकी धर्मपत्नी ने काफी सारी इडलियाँ भोजन के लिए पैक कर दी थीं अतः उन्होंने इडलियों वाला टिफिन निकाला और एक पुराना अखबार अपने सामने बर्थ पर बिछा कर उस पर टिफिन रखकर आराम से भोजन करने की तैयारी करने लगे .  पुराना अखबार  शायद  इसी काम के लिए उनकी पत्नी ने  टिफिन के साथ रख दिया था . लेखक महोदय अपनी बर्थ से नीचे उतरे और कूपे से बाहर निकल कर सिंक पर हाथ धोकर कूपे में वापिस आये और अपनी बर्थ पर चढ़ने से पहले इन महाशय से बोले , " जनाब , मैं भोजन करने जा रहा हूँ ,मेरे पास घर की बनी काफी इडलियाँ हैं यदि आप कहें तो आप को भी दूं , यकीन मानिए मेरी बीवी बहुत बढ़िया इडली बनाती है , आपको बहुत पसंद आयेंगी " .
लेकिन वो महाशय इनका निमंत्रण स्वीकार करने की बजाय मुंह ही मुंह में कुछ बडबड करके  रह गए . लेखक महोदय ऊपर अपनी बर्थ पर जाकर अपनी धर्मपत्नी की दी हुई इडलियों का प्रेम पूर्वक आनंद लेने लगे .इतने में कूपे में बैरे ने प्रवेश किया और लेखक महोदय को पहले से अपने घर से लाये भोजन का आनंद लेता देखकर इन महाशय से रात के भोजन का ऑर्डर पूछने लगा और नान-वेज भोजन का ऑर्डर लेकर वापिस चला गया .

लेखक महोदय ने भोजन करके बची हुई इडलियाँ जो कि अभी भी काफी ज़्यादा थीं , टिफिन में बन्द करके रख दीं और भोजन के लिए अपने सामने बिछाया हुआ पुराना अखबार सावधानी से समेटकर कूपे से बाहर हाथ धोने और कुल्ला आदि करने और अखबार को कूड़ेदान के हवाले करने चले गए . अपनी बर्थ पर वापिस पहुँच कर लेखक महोदय सोने कि तैयारी करने लगे .

इतने में बैरा इनके लिए भोजन कि थाली लेकर कूपे में आया जिसे इन महाशय ने एक प्रकार से उसके हाथ  से झपट कर ले लिया और उसी उकडू  हालत में बैठे-बैठे मुर्गे पर टूट पड़े .

लेखक महोदय हँस  कर करवट बदल कर सो गए .

लेखक महोदय की जब आँख खुली तो उन्होंने पाया कि सुबह हो चुकी थी और गाड़ी किसी स्टेशन पर खड़ी थी .

उन्होंने सहयात्री को देखने के लिए नीचे कि सीट कि तरफ झांका तो उसे सामान सहित गायब पाया . यानी वो रास्ते में किसी स्टशन पर उतर गया था.

लेकिन वो महाशय अपनी निशानी के रूप में  अपने  खाए हुए मुर्गे के  अवशेष ज़रूर छोड़ गए थे जो फर्श पर चरों तरफ बिखरे पड़े थे .

लेखक महोदय अपनी बर्थ से नीचे उतरे और कूपे से बाहर निकल कर कंडक्टर से कूपे की सफाई करवाने को कहा .

पूछने पर मालूम हुआ कि जिस स्टेशन पर गाडी खड़ी थी वहाँ इंजन आदि बदलने के लिए गाडी आधा घंटा रूकती थी , यानी गाडी चलने में अभी काफी देर थी .

कूपे कि सफाई हो जाने के बाद लेखक महोदय नीचे वाली सीट पर बैठ कर खिड़की से बाहर झांकते हुए प्लेटफार्म का नज़ारा करने लगे .

उन्होंने देखा कि सामने एक बहुत गरीब और फटेहाल औरत अपनी गठड़ी समेटे बैठी हुई थी और उसके साथ ही उससे लगा हुआ एक कुत्ता भी बैठा था , दोनों निर्विकार भाव से प्लेटफार्म पर आते-जाते लोगों को देख रहे थे .

लेखक महोदय उठे और टिफिन से बची हुई इडलियाँ निकाल कर एक अखबार के कागज़ में लपेटीं और बाहर जाकर उर औरत को दे आये .

उन्होंने देखा कि उस औरत ने उठकर पास में लगे नल पर जाकर पहले अच्छी तरह से हाथ धोये और फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गयी और अखबार खोल कर इडली निकाली  . बड़ी हैरानी कि बात ये थी  कि  इस बीच उस भूख से बेहाल कुत्ते ने इडली वाले पैकेट को सूंघने तक की  भी कोशिश  नहीं की थी .

उस औरत ने बारी-बारी से चार इडलियाँ कुत्ते के सर पर बड़े प्यार से हाथ फेरते हुए अपने हाथ से उस कुत्ते को खिलाईं  और जब कुत्ते ने मुंह फेर कर जतला दिया की उसका पेट भर चुका है तब वो फिर नल पर जाकर अच्छी तरह से हाथ धोकर आई और  अपने स्थान पर आकर बैठ गयी .उसने दोनों हाथ जोड़ कर अपने भोजन को व अपने ईश्वर को प्रणाम किया और फिर बड़े प्रेम से उन एक दिन की बासी इडलियों को  खाने लगी .  लेखक महोदय बड़े मंत्रमुग्ध भाव से उस औरत को देखे जा रहे थे .भोजन करके उसने बची हुई इडली को अखबार में लपेटा और नल पर जाकर कुल्ला आदि करके बड़ी तृप्ति पूर्ण   मुस्कान लेखक महोदय की ओर डाली .

उस समय तो लेखक महोदय दंग ही रह गए जब उन्होंने देखा कि उस औरत ने उस स्थान पर गिरे भोजन के छोटे-छोटे टुकड़ों को झाड-बुहार कर प्लेटफोर्म के उस स्थान को अच्छी तरह से साफ़ किया और फिर  नल पर जाकर हाथ धोकर प्लेटफार्म के दूसरी ओर चल पड़ी .

गाडी चल पड़ी .

लेखक महोदय हैरान -परेशान , सोचे  जा रहे थे कि कौन था फर्स्ट क्लास के उस कूपे में यात्रा करने का असली  हक़दार  ,  कल वाला उनका सहयात्री या ये फटेहाल गरीब औरत ?

आपका क्या विचार है ?